Zenab rehan

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तीसरा अध्याय




जो मनुष्य हमारे इस सिद्धांत के अनुसार काम करने की बराबर कोशिश करेंगे और मेरी बातों में श्रद्धा रखने के साथ ही निंदा की जरा भी भावना न रखेंगे उनका भी कर्मों से छुटकारा होगा। 31।

इस श्लोक में यद्यपि 'अनुतिष्ठन्ति' शब्द है, जिसका अर्थ होता है कि मेरे मत के अनुसार अनुष्ठान या काम करते हैं। फिर भी यह ठीक नहीं है। क्योंकि उत्तरार्द्ध में जो 'वे भी - तेऽपि' लिखा है उससे पता चलता है कि तत्त्वज्ञानियों के अलावे ये कोई दूसरे ही हैं। तत्त्वज्ञानियों के कर्मों से छुटकारे की बात तो पहले कही चुके। अब उसका कोई मौका हई नहीं। अब तो नई बात कहनी है। तत्त्वज्ञानियों के लिए श्रद्धा और निंदा न करने की बात भी नहीं आती। वे तो इन सभी बातों से बहुत दूर और ऊपर होते हैं। उनके नजदीक भी कर्म नहीं फटक पाता। फिर उससे छुटकारे का क्या सवाल? इसीलिए अनुष्ठान या काम करने की कोशिश करते हैं, यही अर्थ हमने किया है। यही उचित भी है। इसलिए नित्य या बराबर कहना भी ठीक होता है। क्योंकि बराबर कोशिश किए बिना सफलता नहीं मिलती है। ज्ञानी के लिए तो बराबर की बात हई नहीं। उसके लिए यह कहना बेकार है। उस कोशिश में ही श्रद्धा का होना और निंदा-बुद्धि का न होना भी सहायक होता है। इसीलिए जरूरी है। श्रद्धा एवं अनसूया का इतना ही अर्थ है कि ईमानदारी के साथ दिलोजान से यत्न किया जाए।

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।

सर्वज्ञानविमूढांस्तान् विद्धि नष्टानचेतस:॥32॥

विपरीत इसके जो लोग मेरे इस सिद्धांत की निंदा करते हुए इसके अनुष्ठान का यत्न नहीं करते, समझ लो कि उन्हें किसी बात की जरा भी जानकारी नहीं है। हैं वे निर्बुद्धि और चौपटानंद ही। 32।

सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृते र्ज्ञा नवानपि।

प्रकृतिं यांति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥33।

ज्ञानी भी (तो) अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलता है। (क्योंकि) सभी को प्रकृति के अनुकूल ही चलना होता है। इसमें रोकथाम क्या करेगी? 33।

इस श्लोक और इसके बाद के दो श्लोकों को समझने के लिए एक तो इसके स्थान और प्रसंग को ठीक-ठीक जानना होगा। दूसरे पूर्व के पाँच (26-30) श्लोकों के अर्थ पर दृष्टि देना पड़ेगा। यह जानने में कुछ दिक्कत नहीं है कि इस श्लोक का असली स्थान 'मयि सर्वाणि' (3। 30) के बाद ही है। क्योंकि बीच के दो श्लोक यों ही प्रासंगिक हैं। कहीं लोग ऐसा न समझ लें कि कृष्ण किसी प्रकार अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए सारा प्रपंच रच रहे और आडंबर फैला रहे हैं, इसीलिए 'ये मे मतमिदं' आदि दो (31, 32) श्लोकों में यह कह दिया गया है कि यह सर्वोपयोगी ध्रुवसिद्धांत है जो सबों के लिए समान रूप से लागू है। अत: जोई इसके अनुसार चलें या चलने की कोशिश ईमानदारी से करें उन्हीं का कल्याण हो जाएगा। विपरीत इसके जो ऐसा न करेंगे वे चौपट भी जरूर हो जाएँगे। फलत: इन दो श्लोकों का कोई सैद्धांतिक महत्त्व नहीं है। ये यों ही उठी शंका या खामख्याफली को दूर कर देते हैं। इसीलिए बीच में इनके आ जाने पर भी इनके बाद के 33वें श्लोक का संबंध इनके पहले के 30वें के साथ ही रहता है।

अब जरा पीछे वाले उन पाँचों के अर्थों पर गौर करें। उनमें यही कहा गया है कि नासमझ एवं सीधे-सादे लोगों के सामने ज्ञान कथन न सिर्फ बेकार है, बल्कि खतरनाक भी है। क्योंकि वे दुविधे में पड़ जाते हैं। उनकी बुद्धि ऐसे घपले में आ जाती है कि वे न तो घर के रहते और न घाट के। इतना ही नहीं। यदि समझदार और बड़े-बूढ़े लोग कर्म न करें तो वह देखा-देखी वैसा ही करते हैं। फलत: चौपट हो जाते हैं। ज्ञानियों और बड़े-बूढ़ों की भीतरी बातें वे क्या जानने गए? वे तो ऊपर से कर्मों का त्याग देख के खुद भी वैसा ही कर बैठे - कर बैठते हैं। इसीलिए ज्ञानियों के कर्मत्याग में यह बड़ा खतरा है। इसी से कृष्ण ने इसे रोका है और कहा है कि परमात्मा में ही कर्मों को छोड़ के ज्ञानी लोग उन्हंं करते चलें। वे तो यह समझते ही हैं कि कर्म तो गुणों में हैं, प्रकृति के भीतर हैं, हममें तो हैं नहीं, हम तो उनसे बेलाग हैं।

ज्ञानी जनों के इसी खयाल के साथ कि हममें तो कर्म हैं नहीं, किंतु गुणों में ही हैं, यदि यह खयाल भी आ मिले, जो पीछे के सत्रहवें श्लोक में आ गया है कि मस्तराम को कुछ भी करना-धरना रह नहीं जाता; फलस्वरूप वे लोग - आमतौर से यदि यही मान बैठें कि जब कर्मों का ताल्लुक हमसे हई नहीं तो फिर हम करें ही क्यों? जब 'गुणागुणेषु वर्तन्ते' ही है तो फिर हम नाहक माथापच्ची क्यों करें? परेशानी क्यों उठाएँ? तो क्या होगा? नासमझ लोग तो प्रकृति के गुणों के बारे में निरे कोरे हैं, कुछ भी नहीं जानते। इसलिए वे भले ही कर्मों में चिपटें उनके लिए कर्म ठीक भी हैं। मगर हम ज्ञानीजन उनमें क्यों मरे-पिचें? हमें तो अपनी बात पहले देखनी है, पीछे दूसरों की, यदि यह खयाल पक्का हो जाए तो कर्म छूटी जाएँगे। कम से कम कर्मों के लिए एक भारी खतरा तो खड़ा हो ही जाएगा और सारा उपदेश बेकार जाएगा। बस, इसी का उत्तर आगे के श्लोक देते हैं।

ये श्लोक तीन बातें कहते हैं। श्लोक भी तीन ही हैं। इसीलिए क्रमश: तीनों की एक-एक बातें हैं। पहला - 33वाँ - तो इतना ही कहता है कि मस्तराम को देख के दूसरे ज्ञानी कैसे हाथ-पाँव रोक देंगे, यदि वे चाहें भी? प्रकृति के गुणों की जो बात उनके बारे में कही जाती है उसकी आधी ही बात क्यों ली जाए और पूरी क्यों नहीं? एक तो मस्तराम की प्रकृति निराली और शेष ज्ञानी जनों की दूसरी ठहरी। प्रकृति के मानी तो यहाँ शरीर, इंद्रिय, अंत:करणादि होंगे न? प्रकृति का कोई दूसरा रूप तो होगा नहीं, जब हर आदमी के प्रति उसका विचार किया जाएगा। ऐसी दशा में मस्तराम के मन आदि दूसरे और शेष जनों के निराले ही ठहरे। और अगर मस्तराम के मन आदि कर्मों से हट भी जाए या कर्म ही पके फल की तरह उनसे हट जाए, तो इसका दूसरे के मन, इंद्रियादि से क्या संबंध? दूसरे के मन, इंद्रिय आदि क्यों हटेंगे? वे तो दूसरे हैं और अपनी-अपनी प्रकृति के ही अनुसार सभी चलते हैं। दूसरी बात यह भी है कि प्रकृति के गुणों की जैसी यह बात है कि कर्मों का ताल्लुक उन्हीं से है, न कि आत्मा से; ठीक वैसी यह बात भी तो है कि गुण कर्मों को कभी छोड़ नहीं सकते; मजबूरन कर्म करना ही पड़ता है - 'कार्यतेह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:' (3। 5)? फिर यदि कोई भी ज्ञानी जन जबर्दस्ती हाथ-पाँव रोक के कर्म से हटना चाहेंगे तो यह कैसे होगा? उनकी यह रोकथाम क्या कुछ भी कर सकेगी? वह तो महज बेकार साबित होगी।

तब फौरन यह प्रश्न उठता है कि यदि हाथ-पाँव आदि इंद्रियों की रोकथाम हो ही नहीं सकती, जब रोकथाम बेकार है, क्योंकि वह कुछ भी कर सकती ही नहीं, तो ज्ञानेंद्रियों की रोकथाम भी कैसे संभव है? आखिर सभी इंद्रियाँ तो गुणों से ही बनी हैं न? और जब प्रकृति या उसके गुणों पर ही कब्जा नहीं है, तो फिर इंद्रियों पर कैसे होगा, चाहे ज्ञानेंद्रियाँ हों या कर्मेंद्रियाँ, ऐसी हालत में इंद्रियों के निग्रह, रोकथाम या नियमन का सवाल ही बेकार हो जाता है। और अगर यही बात मान लें, तो 'इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य:' (2। 58), 'तानि सर्वाणि संयम्य' (2। 61) तथा 'तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि' (2। 68) में इंद्रियों के निग्रह पर जो सबसे ज्यादा जोर दिया गया है और जो स्थितप्रज्ञ और योगी के लिए बुनियादी एवं मौलिक वस्तु माना गया है वह कैसे ठीक होगा? यही नहीं। इंद्रियनिग्रह तो अध्याुत्मशास्त्र और योग की सबसे मुख्य बात मानी जाती है और वही अब झूठी साबित होती है।

इसका उत्तर बादवाला श्लोक यों देता है। आखिर शरीरयात्रा के लिए इंद्रियों की क्रिया जरूरी है और ज्ञान या विवेक के भी लिए। हाँ, इनके विषयों के साथ जो रागद्वेष हैं उन पर जरूर ही नियंत्रण चाहिए - राग और द्वेष को ही खत्म करना चाहिए। यह बात बराबर संभव भी है। प्रकृति के ही गुणों में सत्त्व ऐसा है कि यदि उसकी प्रगति हो, पूर्ण विकास हो तो रागद्वेष को मिटा दे और हमें उनके चंगुल में कभी फँसने न दे। वह खतरे से पहले ही आगाह जो कर देता है।

इसीलिए अर्जुन ने शुरू में ही जो कहा था कि मुझे यदि कर्म में भी लगाते हो, तो लगाओ, मगर हिंसात्मक युद्ध में क्यों खामख्वाह धकेलते हैं, उसका भी उत्तर हो जाता है। बाद का 35वाँ श्लोक यही उत्तर देता है कि यद्यपि युद्ध हिंसात्मक है, तो भी क्षत्रिय के लिए और खासकर अर्जुन के लिए तो वह स्वधर्म है, उसका निजी कर्तव्य है। अठारहवें अध्या्य में तो साफ ही कहा है कि युद्ध क्षत्रिय का स्वाभाविक धर्म है, 'क्षात्रं कर्म स्वभावजम्' (18। 43) इसलिए 'स्वे-स्वे कर्मण्यभिरत:' (18। 45) तथा 'स्वभावनियतं कर्म' (18। 47) में स्पष्ट कह दिया है कि ऐसे स्वधर्मों एवं स्वाभाविक कर्मों के करने में पाप और बुराई का तो सवाल ही नहीं। प्रत्युत इन्हीं से कल्याण होता है। 'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं' (4। 13) का भी यही आशय है। प्रकृति कहिए, या स्वभाव कहिए। बात तो एक ही है। अर्जुन को यही कहा गया है कि स्वधर्म को छोड़ परधर्म में जाना खतरनाक है। वह तो 'देशी मुर्गी बिलायती बोल' वाली बात हो जाएगी। फिर तो ऐसा करने वाले कहीं के न रह जाएँगे।

इंद्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौय ह्यस्य परिपन्थिनौ॥34॥

प्रत्येक इंद्रिय के विषय के साथ राग और द्वेष नियमित रूप से लगे हैं। इसलिए उनके वश में कभी न जाए। क्योंकि इस आत्मा के बटमार और लुटेरे वही दोनों हैं। 34।

श्रे यान्स्वधर्मो त्रिगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥35॥

दूसरे के बहुत अच्छी तरह पूरे किए गए धर्म की अपेक्षा अपना धर्म (देखने में) खराब या अधूरा रहने पर भी कहीं अच्छा है। (इसलिए) अपने धर्म के पीछे मर-मिटना ही अच्छा है। दूसरे का धर्म तो खतरनाक है। 35।

लेकिन यह तो आमतौर से देखा जाता है कि लोग गलत रास्ते पर जाते हैं और अपना कर्तव्य पालन नहीं करते। युद्ध की निंदा करना और इसे बुरा ठहराना यह आम बात है। लोग इससे हिचकते और भागते भी हैं - वही लोग जिनका यह स्वधर्म है। सभी बातों में यही देखा जाता है कि आमतौर से लोग पाप या कुकर्म की ही ओर झुकते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि नाहक की मारकाट, निर्दयता, दुराचार-व्यभिचार मिथ्या भाषण आदि ही स्वाभाविक तथा प्राकृतिक चीजें हैं। जैसे चटाई के किनारे को पकड़ के मोड़ने में ऐसा होता है कि जब तक दबाव रहता है तभी तक मुड़ी रहती है और ज्योंही दबाव हटा कि ज्यों की त्यों हुई। ठीक वैसे ही मन और इंद्रियों पर जब तक दबाव है, कुकर्म से बचती हैं। मगर ज्योंही दबाव हटा कि फिर वही पाप और कुकर्म। कुत्ते की पूँछ की-सी हालत है। जब तक दबाओ तभी तक सीधी रहती है, नहीं तो फिर टेढ़ी की टेढ़ी । जैसा उसका टेढ़ापन या चटाई का सीधापन स्वाभाविक है, वैसे ही, मालूम पड़ता है, बुराई ही इंद्रियों का स्वभाव है। इसी से देखते हैं कि युग-युगांतर से ऋषि-मुनि, अवतार, पीर-पैगंबर और औलिया हजारों और लाखों हुए। उनने उपदेश भी दिया। मगर संसार में उसी असत्य, उसी व्यभिचार, उसी निर्दयता आदि का ही बोलबाला है! मानो कुछ हुआ ही नहीं! गोया यही असली एवं अकृत्रिम बातें हैं और सत्य आदि ही कृत्रिम हैं! यहीं नहीं; बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी कभी न कभी इनमें फँसी गए हैं! जब समाज के लिए सत्य आदि ही आवश्यक हैं और ठीक भी हैं और जब प्राकृतिक धर्मों का ही करना जरूरी है, उन्हीं को करना ही चाहिए, तो यह उलटी बात क्यों होती है, यही बड़ी-सी पहेली अर्जुन के सामने खड़ी है। इसीलिए -

अर्जुन उवाच

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥36॥

अर्जुन ने पूछा - हे वार्ष्णेय, भला (बताइए तो सही कि) हजार न चाहने पर भी यह मनुष्य बुरा कर्म किसके दबाव से - क्यों - कर डालता है? मालूम पड़ता है, जैसे किसी ने जबर्दस्ती करवाया हो! 36।

इसीलिए दुर्योधन के बारे में कहा जाता है कि उसने कहा था कि, यह जानते हुए भी कि पांडवों का हक देना उचित है, मैं दे नहीं सकता। साथ ही, द्रौपदी आदि के साथ वाले दुर्व्यवहार को बुरा समझते हुए भी मैं उससे बाज नहीं आ सकता। मालूम पड़ता है, कोई बड़ी भारी शक्ति भीतर बैठी जबर्दस्ती करवा रही है - 'जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्ति:। केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि'। क्या चोर नहीं समझता कि चोरी बुरी है? क्या व्यभिचारी नहीं समझता कि यह काम खराब है? फिर भी सभी वही करते ही हैं! प्रश्न होता है कि नहीं चाहते हुए भी करने का रहस्य क्या है?

श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।

महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्॥37॥

श्रीभगवान ने उत्तर दिया - यह काम - राग - है और यही क्रोध - द्वेष - भी है। इसकी उत्पत्ति रजोगुण से होती है। इसका पेट कभी भरता ही नहीं। यह पुराना पापी है। इस दुनिया में इसी को बैरी समझो। 37।

धूमेनाव्रियते व ह्नि र्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्वेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥38॥

जैसे धुएँ से आग छिपी रहती है, जिस तरह मैल से आईना छिपा होता है, (या) जिस प्रकार गर्भ की झिल्ली में बच्चा छिपा रहता है, उसी तरह उस काम ने इस (ज्ञान) को छिपा दिया है। 38।

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौंतेय दुष्पूरेणानलेन च॥39॥

ज्ञानियों के सदा के इस शत्रु ने, जिसे काम कहते हैं, जो कभी पूरा होता ही नहीं और जिसका अंत भी नहीं होता या जो आग की तरह भीतर ही भीतर जलाता रहता है, ज्ञान को छिपा रखा है। 39।

इंद्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।

एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥40॥

इंद्रियाँ, मन और बुद्धि (यही तीन) इसके अड्डे हैं। इन्हीं के द्वारा ज्ञान या भले-बुरे के विवेक पर परदा डाल के यह काम आत्मा को भटका देता है - किंकर्तव्यविमूढ़ कर देता है। 40।

तस्मा त्त्व मिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥41॥

इसलिए हे भरतश्रेष्ठ, पहले तुम इंद्रियों को ही नियंत्रण में ला के ज्ञान और विज्ञान को चौपट करने वाले इस बदमाश को जड़ से जरूर खत्म करो। 41।

इंद्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य परं मन:।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परस्ततु स:॥42॥

(और पदार्थों की अपेक्षा) इंद्रियाँ ऊँची या बड़ी हैं, इंद्रियों से भी बड़ा मन है, मन से ऊपर बुद्धि है और जो बुद्धि के भी ऊपर है वही वह (आत्मा है)। 42।

एवं बुद्धे: परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥43॥

हे महाबाहो, बुद्धि के भी ऊपर रहने वाली आत्मा को इस प्रकार जानकर और स्वयमेव मन को रोक के, वश में करके बड़ी दिक्कत से पकड़े जाने वाले कामरूपी इस शत्रु को खत्म करो। 43।

यहाँ दो-एक जरूरी बातें जाने बिना अंत के चार-पाँच श्लोकों के अर्थ समझने में दिक्कत होगी। इसीलिए वे बातें कह देना जरूरी हैं। यह तो दूसरे अध्यााय में ही कह चुके हैं कि काम और क्रोध एक ही चीजें हैं। उसी की सफाई यहाँ की गई है। सोलहवें अध्यााय के अंत में इन्हीं दो के साथ लोभ भी जुट गया है 'काम:क्रोधस्तथा लोभ:' (16। 21)। जिस तरह काम और क्रोध एक हैं, उसी तरह लोभ भी काम से भिन्न नहीं है। असल में इस काम, कामना, वासना या इच्छा के ही ये क्रोध और लोभ दो रूप हैं, जो परिस्थितिवश बन जाते हैं - काम को ही क्रोध के रूप में और लोभ के रूप में परिणत हो जाना पड़ता है। जिसे कामना नहीं उसे क्रोध और लोभ से भी कोई ताल्लुक नहीं है। क्रोध से कैसे भीतर अंधकार हो जाता है यह 'क्रोधाद्भवति सम्मोह:' के अर्थ में स्पष्ट दिखा चुके हैं। उसी को आवरण या पर्दे के रूप में यहाँ कहा है।

यह काम ही विवेकी जनों का असल शत्रु है। इसका नाश इसीलिए जरूरी है। मगर इसके अड्डे का पता चले तब न इस पर धावा बोलें? इसलिए इंद्रिय, मन और बुद्धि इन तीनों को ही इसका अड्डा बता दिया है। यह रहता तो है दरअसल अंत:करण में और उसी के रूप हैं मन और बुद्धि। मगर इंद्रियों के बिना बाहर तो मन या बुद्धि जा नहीं सकती और बाहरी पदार्थों में ही रागद्वेष होते हैं। बाहरी से तात्पर्य है भौतिक पदार्थों से। इसीलिए इंद्रियों को भी अड्डा करार दिया है। बुद्धि यदि ठीक हो, विवेकयुक्त हो तो भी काम रहेई न। इसीलिए उसे भी इसका डेरा कहा है। यों तो असली डेरा मन ही है। इस प्रकार तीन अड्डे हो गए। लिखा है भी कि इन तीनों की मदद से ही देह के मालिक - देही - आत्मा को यह काम भटका देता है।

अब रहा इसे खत्म करने का उपाय। असली बला तो इंद्रियाँ ही हैं। न वे बाहर मनीराम को जाने देंगी और न कामना होगी। इसलिए यह तो आसानी से जाना जा सकता है कि इस तरफ पहला कदम जो बढ़ेगा वह इंद्रियों पर नियंत्रण, अंकुश या कब्जा रखने से ही शुरू होगा। इसीलिए कह दिया है कि इंद्रियों को सबसे पहले बिना सोचे-विचारे ही आँख मूँद के कब्जे में करो। उसके बाद आगे का उपाय सोचो। ऐसा कहने का यह अर्थ कभी नहीं है कि सिर्फ इंद्रियों को रोक कर ही इसे खत्म करेंगे। तब तो आगे के श्लोकों में कही बातें बेकार हो जाएँगी। केवल इंद्रियों के रोकने से यह मर भी नहीं सकता। इसके दूसरे भी तो अड्डे हैं और वही असली हैं - बुनियादी हैं। बिना मन और बुद्धि को वश में किए इंद्रियाँ सोलह आने वश में हो भी नहीं सकती हैं। इसीलिए हमने कहा है कि उनका रोकना नींव या श्रीगणेशायनम: ही समझिए।

असली उपाय यह बताया है कि इंद्रियाँ शरीर और अन्य पदार्थों से बड़ी या उनके ऊपर हैं। वही शरीर को दौड़ाती रहती हैं। सिनेमा, गान, भोज में खींच ले जाती हैं। यद्यपि विषय इंद्रियों को भी खींचते हैं। तथापि उन्हें यहाँ छोड़ दिया है। क्योंकि अड्डों को ही पकड़ना था। इंद्रियों के ऊपर है मन और मन के ऊपर बुद्धि। आत्मा तो सभी का मालिक है। देह में ही ये सब हैं और देही वही है। यह बात पहले अच्छी तरह समझाई जा चुकी है। अब काम यों होता है कि पहले आत्मा का तत्त्वज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर बुद्धि से उसके आनंद का अनुभव करते हैं। इस तरह बुद्धि को उसमें फँसा देने पर - क्योंकि वह आनंद हई ऐसा कि एक बार मजा आने पर बुद्धि वहाँ से हट सकती ही नहीं - मन भी उधर ही खिंचेगा। कोचवान के ही हाथ में लगाम होती है न? और मन है लगाम और बुद्धि कोचवान। फिर तो इंद्रियाँ भी खिंच गईं और बाहरी पदार्थों में न जा के आत्मा में ही लग गईं। तब काम महाराज रहेंगे कहाँ? कुछ समय इंतजार करके हमेशा के लिए उन्हें आत्महत्या करनी पड़ती है जब पूर्ण निराश हो जाते हैं। फलत: ज्ञान और विज्ञान का ही बोलबाला रहता है। इन दोनों का अर्थ बताया जा चुका है।

इंद्रिय और मन आदि को जो एक दूसरे के ऊपर कहा है यही...विषय, महान और अव्यक्त को जोड़ के कठोपनिषद् में भी दो बार यों आई है, 'इंद्रियेभ्य: परा ह्यर्था ह्यर्थेभ्यश्च परं मन:। मनसस्तु परबुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्पर:'।10। 'महत: परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुष: पर: । पुरुषान्नपरं किंचित्सा काष्ठा सा परागति:' 11। (1।3), तथा 'इंद्रियेभ्य: परं मनो मनस: सत्त्वमुत्तम्। सत्त्वादधिमहानात्मामह तोऽव्यक्तमुत्तमम्। 7। अव्यक्तात्तु पर: पुरुषो व्यापकोऽलिंगएव! यज्ज्ञात्वामुच्यते जंतुरमृतत्त्वं च गच्छति'। 8। (2। 6)। यहाँ सत्त्व का अर्थ है बुद्धि और महान आत्मा का अर्थ है महत या महतत्त्व। अव्यक्त नाम है प्रकृति का। क्रम तो यही है। मगर गीता को इस विस्तार से कोई काम नहीं है। वह तो बुद्धि को ही आत्मा में लगा के मन और इंद्रियों को अपनी ही ओर खींच लेना और इस तरह काम, राग या अभिलाषा को मार डालना चाहती है। उसने यही बताया भी है।

आखिरी श्लोक जो में दुरासद शब्द है उसका अर्थ है बड़ी कठिनाई से पकड़ा जाने वाला। असल में इस राग या काम के इतने स्थूल, सूक्ष्म और विभिन्न रूप हैं कि जल्द उनका पता लगना असंभव है। काम की हालत भी यह है कि धोखा दे के फँसा लेता है और पता ही नहीं चलता है कि फँस गए हैं। भक्ति और उपासना के नाम पर जानें कितने ही प्रपंच रचे जाते हैं जो पतन के ही मार्ग हैं। मगर पता ही नहीं लगता और लोग उनमें फँस जाते हैं; इसीलिए इसे दुरासद कहा है ताकि लोग सजग रहें।

इस अध्याहय में साधारण से साधारण कर्मों से ही शुरू किया है और अंत तक उसी की बात कहते आए हैं। मामूली से मामूली कर्मों से लेकर ऊँचे से ऊँचे या कर्मयोग तक का वर्णन इसमें आ गया है। 'मयि सर्वाणि' (3। 30) में आखिर है क्या यदि कर्मयोग नहीं है? इसलिए समूचे अध्यातय पर कर्म की ही छाप लगी है। यही कारण है कि ज्ञान की जो बात आई है वह गौण या अप्रधान है। वह या तो उसी का साधन है या मस्ती का ही; जैसा कि 'यस्त्वात्मरति:' (3। 17) में कहा है। फलत: कर्म की प्रधानता के कारण इस अध्या्य का विषय कर्म ही है। जैसे दूसरे अध्यािय का विषय सांख्य या ज्ञान है। ज्ञान से ही शुरू करके बीच में और अंत में भी उसी का वर्णन है। कर्म तो बीच में ही आया है, सो भी अप्रधान रूप से ही।

इति श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्याभय:॥3॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका कर्मयोग नामक तीसरा अध्या्य यही है।






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